
यादें कभी बदलती नहीं
वक़्त के साथ साथ और जवान होती जाती हैं
घड़ी बूढ़ी हो गई
लेकिन बचपन वहीं का वहीं है...
कल ही की तो बात है
अरसा हो गया क्या ...
बीस साल हो गए बचपन की यादों को गले से लगाए हुए
बचपन ..
आज भी वहीं
गांव की गलियों से
बैलगाड़ी के बरोठे से
पटरी के ओट से
छप्पर के नीचे से
बारिश की बूंदों में भीगा हुआ
काग़ज़ की नाव पर तैरता हुआ
चला जा रहा है
चला जा रहा है....
✏ वह सेठा की कलम, बुदिक्का, स्याही, फट्टी , चौरईया बहुत याद आती है.एक बगिया हुआ करती थी ,उसमें लंबी-लंबी हम खुद फट्टियां बिछाते थे .हरे भरे पेड़ों के नीचे बैठ कर इतिहास भूगोल रटा करते थे .हम लोग रोज एक पाठ याद करके बहन जी को सुनाया करते थे.जी हां बहन जी तब सर और मैम हमारी जुबान पर नहीं चढ़ा था .मैडम को हम बहनजी और सर को मास्टर साहब बोला करते थे .हमारी याददाश्त बहुत अच्छी थी बहन जी को बड़ा अच्छा लगता था जब मैं उनको रोज एक पाठ याद करके सुनाया करता था.
💂🕵 हरिओम और विनोद हमारे क्लास में सबसे बड़े थे, वह हमारे चाचा टाइप के सहपाठी थे ..महेश की सुलेख बहुत अच्छी थी. श्यामपाल गाना बहुत अच्छा गाता था, परदेसी परदेसी जाना नहीं उसका फेवरेट था .अशोक मास्टर साहब बहुत सख्त हुआ करते थे एकदम आर्मी के माफिक .उनके एक झापड़ से Shaktimaan याद आ जाता था 😬.
चौराया से रगड़ रगड़ के अपनी पाटी(तख्ती )चमकाते थे और फिर जब उस पर सफेद खड़िया से लिखते थे उफ़ क्या चमकता था.
इंटरवल में सारे बच्चे गयाराम के ठेले के आसपास जमा हो जाते थे. हमको खूब याद है दो या तीन रुपए लेकर जाते थे,उसमें टिक्की, समोसा, बालूशाही यह सब खा कर , 50 पैसे भाईसाहब बचा बचा लेते थे. आहा दयाराम के कटे हुए आलू भरे समोसे और उस पर उनके घर के सिलबट्टे पर पिसी हुई चटनी आह आनन्द आ जाता था .
घर आकर उनमें से 25 पैसे के कंचे और 25 पैसे की पतंग बोनस के रुप में मिल जाती थी.
🌧पहले कच्ची सड़कें हुआ करती थी जब बारिश होती थी तो ऐसी सोंधी सोंधी महक आती थी कि कुछ पूछो मत. अब तो रोड हैं सड़कें तो है ही नहीं. सड़कों में नमी हुआ करती थी ,जान हुआ करती थी अपनेपन की महक हुआ करती थी ,अब तो चारो तरफ पत्थर ही पत्थर है ,रोड है ,उसमें कोलतार है ,सीमेंट है मरा हुआ जमा हुआ उसमें कहां से नमी आएगी. खैर जाने दो यारों 👇
हमारे खेल भी अजीब हुआ करते थे गिल्ली डंडा ,बंगू को 🏺 नचाना, ईटों को खड़ा करके लाइन से लगा देते थे फिर एक ईंट को धक्का देते थे और सारी ईंटें पड़ पड़ पड़ पड़ पड़ गिरती चली जाती थी और पीछे से पापा आते थे और उनका लोहालाट हाथ हमारे सिर पर पड़ पड़ पड़ पड़ पड़ता चला जाता था हम चिल्लाते थे पापा पापा पापा अब नहीं करूंगा आगे से हाहाहा .
गिलास में मिट्टी भरकर उसका नमूना बनाते थे फिर उसमें चींटा ढूंढते थे, हद थी मासूमियत की .
✍️आलोक पाण्डेय
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