फिल्म का पहला ही फ्रेम आप को दबोच लेगा और अपनी मांद में ले जाएगा.
उसके बाद फिर आप वापस आने की हिमाकत नहीं कर पाएंगे.
फिल्म का एक एक सीन इस तरीके से पिरोया गया है, लगता ही नहीं है कि कोई फिल्म चल रही है .ऐसा लगता है,डायरेक्टर आपको उस कड़वी हवा के रेगिस्तान में ले गया और एक टीले पर बिठा दिया और कहता है, देख चुपचाप, जो मैं तुझे दिखाना चाह रहा हूं,और वाकई
आप उसके बाद आंख को झपका नहीं पाएंगे.
संजय मिश्रा सर को देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई बूढ़ा शेर रेगिस्तान में गुररा रहा है, और कह रहा हो ,आओ तुमको इस दुनिया की भयानकता से, कड़वी हवा की इस सच्चाई से,मौत के तांडव से रूबरू कराता हूं.
राजदूत मोटरसाइकिल पर बैठे हुए 5 बच्चे, सुखा रेगिस्तान ,बंजर, टीला,एक सूखे पेड़ के नीचे खूंटे से बंधी हुई भैंस, प्लास्टिक की बोतल मे पानी, मौत का इंतजार.
लाश, कफन ,अर्थी. राम नाम सत्य है .
यह सब कुछ बिना कुछ बोले हुए बहुत कुछ कह जाता है. एक लाश जाती हुई, पीछे से एक बूढा अंधा हाथ में लाठी पकड़े हुए जमीन को टटोलते हुए, फ्रेम में एंट्री करता है,लगता है कह रहा है अभी भी वक्त है संभल जाओ..
उफ़्फ़.... क्या स्क्रीनप्ले है,कमाल की सिनेमेटोग्राफी, बैकग्राउंड स्कोर. ऐसा लगता ही नहीं कि कहीं पर कोई संगीत है ,जो भी है ,जिसको जितना होना चाहिए उतना ही है. फिल्म में सिर्फ एक गाना है और वह भी दिल को चीर देता है .
रात का सन्नाटा, लालटेन, कुत्तों और सियारों की आवाज . घर पर काम से वापस पति न लौटने की चिंता,सुबह कुछ अनहोनी की आहट,संजय मिश्रा सर का लड़खड़ा के उठना,और अपने बच्चे के लिए भागना. दिल दहला देता है.
फिल्म का एक-एक संवाद आपको सोचने पर विवश करता है कि हम 2017 में सिटी मॉल के PVR के ए.सी हॉल में बैठ कर जीवन के इस कड़वी सच्चाई को देख रहे हैं और यह सच है.
यह फिल्म हर किसी को देखनी चाहिए.
यह फिल्म चेतावनी है,आने वाले विनाश की.
- आलोक पाण्डेय
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