Down to earth (डाउन टू अर्थ) - लघु कथा - written by Alok Pandey


सन 1998....ब्लेक एंड व्हाइट वाला , शक्तिमान , डी डी वन वाला मौसम ....


मैं घर में सबसे छोटा था..

इसलिए साइकिल चलाने का नंबर मेरा सबसे बाद में आता था.

सबसे पहले ,हमारे घर में 20 इंची वाली एक साइकिल आई . हीरो जेट, लाल रंग था उसका.....


जो तस्वीर आप देख रहे हैं

यह उसके बाद वाली है ,22 इंची...

 ..मैंने इसके साथ एक प्रयोग किया था 😁🙏...

सुनेंगे?


आइए सुनाता हूं😁


साइकिल चलाने की इज़ाज़त उसको थी, जो गद्दी पर बैठ सकता था , और मेरे गद्दी पर से पैर लगते नहीं थे....


इसलिए मैं नॉट फिट था...😁🤩


तो मेरी साइकिल से ज़्यादातर दूरी बनी रहती थी ,या कहिए 

बना के रखने के लिए कहा जाता था .. नॉट फिट जो था 😁

जनहित में जारी था ...


अक्सर भरी दुपहरी में जब सब लोग सो रहे होते ,तो मैं साइकिल लेकर निकल जाता था, मैं उस समय कैंची चला लेता था , लेकिन कैंची चलाना वैसा ही महसूस होता था ,जैसे गाड़ी तो आपकी है लेकिन चोरी की है 🙈🤩🤩😁

 इंसल्ट  टाइप का फील होता था ,हमेशा मन  में यही चलता रहता था, कि कब मैं उस इमारत(सायकिल)की छत पर पहुंचूंगा और वहां जाकर जोर से चिल्लाऊंगा, ऐ आसमान आजा मुझे गले लगा ले.....

काफ़ी दिन चोरी छिपे प्रैक्टिस करने के बाद मुसाफ़िर अकेले मंज़िल की ओर चल दिया ...🚳❌😁


फाइनली वह दिन आया...🙈


कैंची चलाते चलाते ,जब थोड़ा कॉन्फिडेंस बढ़ गया तो  एक  दिन मैंने साइकिल के पहले माले पर जाने का फैसला किया.. अर्थात गद्दी पर बैठने का फैसला किया ...


 काफ़ी ज़द्दोज़हद के बाद, आख़िर मैं साइकिल के उस हिस्से में पहुंच गया, जहां पर मैं साइकिल के लिए बालिग, माना जाता..

 सब अच्छा लग रहा था ,आसमान उस दिन बहुत नीला लग रहा था..चारों तरफ खेत लहलहा रहे थे, रेल इंजन की आवाज़ भी उस दिन हलकी सुनाई दी ...सड़क एक दम साफ़ दिख रही थी,कोई नहीं था सामने 

बस मैं और मेरा हमसफ़र 

आह आह ।।।सुंदर गीत कानों में गूंजने लगे ...


राजा साहब बिल्कुल अपने मनोरंजन में कोई ख़लल नहीं चाहते थे...


लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था..

छन से जो टूटा कोई सपना ,जग सुना सुना लागे

कोई लगे न फिर अपना ..


हकीकत का एहसास हुआ और ऐसा महसूस हुआ मेरे पैर पेडल से कोसों दूर हो गए हैं ...मैं चाह कर भी पेडल को पकड़ नहीं पा रहा हूं .... ऐसा लग रहा था उस समय कि मैं कहीं बीस  मंजिला इमारत पर बैठा हूं और वहां से उतरने का मेरे पास कोई साधन नहीं है, सीढ़ियों को हटा दिया गया है....

और उस इमारत को मेरे साथ अकेले कहीं दूर किसी समंदर में छोड़ दिया गया है.....

है भगवान , दोपहरी है, कोई दूर दूर तक आता भी नहीं दिख रहा, मैं कब तक इस इमारत पर टिका रहूंगा ...कूद जाऊं क्या 

अरे नहीं, नहीं ....या इसका  भरोसा करूं...

कहीं ना कहीं मुझे अच्छी जगह ले जाकर ठिकाने से लगाएगी...

यही सब चल रहा था , चंचल मन में...

और अचानक चैन भी फस गई और मेरे मुंह से बहुत जोर से निकला  मम्मी...................

कट टू....


बहुत देर तक छठ पटाने के बाद, कोशिश के बाद आखिरकार मैंने अपने आप को धरती मां की गोद में समर्पित कर दिया

 घुटने छिल गए, कोहनी  के पास काफी नरम महसूस हो रहा था..


वास्तव में मैं काफी डाउन टू अर्थ फील कर रहा था...

वास्तव में मुझे बहुत करारी पटकी लगी थी ...

और मुझे ये ज्ञान प्राप्त हुआ कि 

जब तक सही ट्रेनिंग न हो 

कुछ भी तूफ़ानी करने की न सोचें

लघु कथा समाप्त

🙏 आलोक पाण्डेय