नमस्कार दोस्तों

मेरा नाम आलोक पांडे है, मेरे पिताजी का नाम स्वर्गीय श्री शिवराम पांडे है, मेरी माता जी का नाम श्रीमती राज कांति पांडे है। हम चार भाई हैं, मैं सबसे छोटा हूँ, क्रम से लिखता हूँ, संजय, अजीत, सुबोध और आलोक। मेरे गांव का नाम ददऊं है, और मेरे ज़िले का नाम शाहजहांपुर है। बचपन से ही मुझे स्कूल में कविताएं, गाने सुनाने का शौक था। कुछ ना कुछ ऐसा करने का मन करता था, जिसमें लोग मुझे देखें और मुझे देख कर खुश हो, तालियां बजाएं, जिससे मुझे बहुत ही आनंद मिलता था, असीम आनंद की अनुभूति होती थी।

दोस्तों आपको जानकर आश्चर्य होगा मैंने 8वीं कक्षा में एक सीन वर्क किया था, जिसमें मैं ख़ुद गब्बर सिंह बना था और मैंने अपने छोटे चचेरे भाई को कालिया का रोल दिया था, जब पीछे पलट कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि जीवन मे हर पल एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, बहुत बारीक़ी से। ये सिलसिला चलता रहा, मैं हर साल 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2 ओक्टोबर का बेसब्री से इंतज़ार करता और कोई कुछ करे न करे आपको आलोक पाण्डेय एक परफॉर्मेंस ज़रूर देते हुए नज़र आते।

12वीं क्लास तक छोटी छोटी कविता, गीत लोगों के सामने सुनाता रहा। मिमिक्री बग़ैरा भी की, हिम्मत करके, लेकिन उस समय तक कुछ भी फाइनल नहीं था कि आख़िर जाना किधर है। बारहवीं के बाद मैं और ज्यादा कंफ्यूज हो गया था कि मुझे करना क्या है, भेड़ चाल हो गया था, जो दोस्त बताते थे, वही करने लगता था, जहां मौका मिला, वहां फॉर्म अप्लाई कर देता था। लेकिन बारहवीं के अंत तक आते-आते एक नाटक देखा और उस नाटक को देखने के बाद मैं रात भर सो नहीं पाया। पूरी रात करवटें बदलती निकल गई, वो मंच की प्रस्तुति मुझमें एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर गई।

मैं रात भर यही सोचता रहा क्या यही तो नहीं है, जो मुझे बुला रहा है, क्या यही तो वो जगह नही है जहां मुझे सुकून मिलेगा, सपनों को उड़ान मिलेगी। अंततः बेचैनी की जीत हुई और मैंने एक थिएटर ग्रुप जॉइन किया जिसका नाम है संस्कृति।

उसके डायरेक्टर हैं श्री आलोक सक्सेना जी जो मेरे रंग मंच के प्रथम गुरु है। इस ग्रुप तक ले जाने में मुझे मेरे जिन दो दोस्तों का मार्गदर्शन और साथ मिला उनका नाम यहां पर न हो तो मेरी ये रंग यात्रा अधूरी मानी जायेगी, रवि चौहान और धर्मेंद्र सिंह सिसोदिया। ये वो दो हस्ती हैं जिनको देखकर मैंने इन ख़ूबसूरत सपनों को देखने की हसरतें पाली, आलोक सक्सेना जी और मेरे इन्ही दो दोस्तों के साथ मिलकर ये यात्रा प्रारंभ हुई।

इस तरह एक छोटे से गांव से शहर आने जाने का सफ़र शुरू हुआ। लेकिन दुनिया दूर से जितनी रंगीन दिखाई दे रही थी...आसान उतना नही था...

गांव से आना जाना वो भी सायकिल से, काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। रिहर्सल से लौटते, लौटते काफ़ी रात हो जाती थी। उस समय 2007 मे बिजली की इतनी अच्छी व्यवस्था भी नही थी, लूटपाट, चोरी, डकैती अपने चरम पे थी, डर भी लगता था। किसी दिन कोई मिल गया चोर, डाकू तो सारा रंगमंच सड़क पे ही करा देगा। ऊपर से आर्थिक तंगी, ऊपर से साइंस का विद्यार्थी वो गणित (B.Sc ) बाबा रे बाबा। शुद्ध भाषा मे कहूँ तो दिमाग़ का दही हो जाता था।

लेकिन यह एक ऐसा कीड़ा है जो अगर काट ले एक बार तो फिर चैन नहीं पड़ता है और हमारे अंदर तो पहले से ही वायरस था। बीच में इन्ही सब दिक्कतों की वजह से रंगमंच छोड़ना पड़ा, फिर जॉइन किया, फिर छोड़ा, फिर जॉइन किया फिर छोड़ा, लेकिन मन नहीं लगा फिर आकर ज्वाइन किया और उसके बाद मैंने पलट कर नहीं देखा।

शाहजहांपुर और आसपास के शहरों में कई नाटक करने के बाद, 2008 में मैंने भारतेंदु नाट्य अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दोनों जगह प्रवेश के लिए अप्लाई किया। भारतेंदु नाट्य अकादमी में तो नहीं हुआ परंतु राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रारंभिक परीक्षा में मेरा चयन हो गया जिसके बाद मुझे 5 दिन की वर्क शॉप करने का मौका मौका मिला। जिसमें देशभर के एक से एक बढ़कर लड़के लड़कियों के साथ काम करते-करते सीखने का मौका मिला।

लेकिन किस्मत मुझे कहीं और ले जाना चाहती थी और दुर्भाग्यवश चयन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नहीं हो पाया, परंतु मेरा दिमाग़ ने मुझे वहां ख़ूब नचाया। वो 5 दिन.. 24 घण्टे सिर्फ़ काम-काम, इम्प्रोवाइजेशन, सीनवर्क, पेंटिंग, अभिनय, संगीत, बॉडीलैंग्वेज, आवाज़, स्पेस, प्रॉप्स, कॉस्ट्यूम। इतना काम करने का मौका मिला और वो काम नही लगता था। ख़ुद से ख़ुद को साबित करना था, हर कोई हर पल जीतना चाहता था। और वही जीत की आग, उसे कुछ नया सीखने का मौका देती थी। वो पांच दिन मेरे लिए लाइफ चेंजिंग थे। मैं वापस आया, मैंने आगे की तैयारी शुरु कर दी और यह ठान लिया कि अगले साल हर हालत में किसी न किसी संस्थान में एडमिशन लेना है,और जो चाहा वह हुआ, भारतेंदु नाट्य अकादमी में मेरा चयन हो गया 2009 में, और मैं अपने गांव से बोरिया बिस्तर समेट कर माता-पिता के चरण स्पर्श करके, लखनऊ के लिए रवाना हो गया।

2009 से 2011 तक मैं वहां रहा, देश विदेश के बड़े-बड़े डायरेक्टर के साथ काम किया। हर शैली के नाटक किये - संस्कृत,अंग्रेजी, पारसी, हिंदी। एक से बढ़कर एक भूमिकाएं की, लीड किरदार किये, प्रोसेस सीखा और जाना अभिनय, करके सीखने की कला है।
वह 2 साल कब निकल गए पता ही नहीं चला और मैं 2011 में पास आउट हो गया। लेकिन यात्रा यहां से एक दूसरा मोड़ लेती है।

जब आप कुछ नया सीखते हो तो वो, आपसे आपका बहुत कुछ ले भी लेता है और यही हुआ, अभिनय मुझसे और समय मांग रहा था, मैं भी बिल्कुल जल्दबाजी में नही था। कुछ कमी महसूस हो रही थी, ऐसा लग रहा था कि अभी तैयारी पूरी नहीं है। मुंबई जाने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। तभी मुझे पता लगा सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में एक्टिंग का एक नया बैच स्टार्ट हो रहा है। कोर्स स्टार्ट हो रहा है - Acting for screen, मैंने वहां अप्लाई कर दिया और मेरा वहां भी सलेक्शन हो गया और मैं बोरिया बिस्तर समेट कर चला गया कोलकाता।

9 महीने वहां पर रहा, कैमरे की बारीकियों को सीखा। देश विदेश के सिनेमा को जाना दुनिया भर के एक्टर्स को जाना अच्छी-अच्छी फिल्में देखी। वास्तव में अभिनय की बारीकियों को समझने का मौका वहां मिला। विपिन शर्मा, अरविंद पाण्डेय जैसे दिग्गज़ एक्टिंग गुरुओं के सानिध्य में, जो भी दिमाग़ में अभिनय को लेकर कूड़ा करकट भरा हुआ था, उसको साफ़ किया। और समझा कि अभिनय सिर्फ़ संवाद को बोलना, तेज़ चिल्लाना, आवाज़ का उतार चड़ाव या ज़ोर से शरीर को हिला देना, कंधे उचका देना भर नही है। अभिनय इसके बहुत आगे है। वहां बात हुई, सैंफोर्ड माइस्ज़नर की, वहां बात हुई मैज़िक इफ़ की, वहां बात हुई इररफ़ान की, वहां बात हुई एक्टिंग न करने की, वहां बात हुई सोल की क़िरदार की, धीरे धीरे हमको एक रास्ता दिखाई देने लगा और समझ आया ये कभी भी न ख़त्म होने वाली ट्रेनिंग है ,जैसे जैसे आपकी उम्र बढ़ेगी, आपका अनुभव बढेगा, आपकी एक्टिंग में निखार आएगा बशर्ते आप ज़िन्दगी को पूरे होशो हवास में जान समझ रहें हो, नही तो कोई मतलब नही है, कितना भी अनुभव हो।

उसके बाद 2012 के सितंबर में मैं घर वापस आ गया 2 महीने मैंने घर पर बिताए और 29 दिसंबर 2012 को मैं मुंबई पहुंच चुका था, नए साल की शुरुआत मैंने मुंबई में की शुरुआती दौर के छह महीने ऐसे ही निकल गए। न ही कोई ऑडिशन नहीं हुआ, न कहीं से कोई अच्छी ख़बर आई। आते ही बीमार पड़ गया, एक बड़े से घर से निकलकर जब एक छोटे से कमरे में सारी दुनिया आपकी समा जाए तो कैसा लगता है। ये वही समझ सकता है, जिसने इसको जिया है। एक कमरा उसी में रसाई, उसी में बाथरूम, उसी में भोजन करना है, उसी में सोना है, उसी में आपको सपने देखने हैं, उसी में आपको अपनी क्राफ़्ट पे काम भी करना है, उसी में आपको ख़ुद को मेंटेन भी करना है, स्मार्ट भी दिखना है। उफ़्फ़...

एक समय ऐसा भी आता है जब लगा.. सच बता रहा हूं कि वापस चला जाऊं, थिएटर में अच्छे अच्छे किरदार करने के बाद यहां पर कोई एक दिन का काम भी नहीं दे रहा था, लेकिन वह कहते हैं ना कि जब किसी चीज को आप दिल से चाहो तो पूरी कायनात उसको आप से मिलाने में कोशिश में लग जाती है। तभी एक दिन एक अच्छे बड़े पहले प्रोजेक्ट के रूप में मुझे Ravi kemmu (NSD) सर ने बुलाया, जो मुझे मेरे BNA के दिनों से जानते थे। वो दूरदर्शन के लिए एक सीरियल बना रहे थे, जिसका नाम था, "हमारे गांव कोई आएगा"।

वह 13 एपिसोड का था उसमें उन्होंने मुझे लीड करैक्टर ग़ुलाम नबी दिया। बस फिर वही से सिलसिला शुरू हुआ उसके बाद मुझे साथ में ही एक शॉर्ट फिल्म मिली That day after everyday अनुराग कश्यप जी के साथ। उसके बाद मुझे प्रेम रतन धन पायो फ़िल्म मिली। इन्ही सब के दौरान मेरा मिलना विकी सिदाना से हुआ जिनकी वजह से मुझे फिर ऐसी फ़िल्म मिली, जिसने मेरे जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल के रख दी। महेंद्र सिंह धोनी के ऊपर बनने वाली फिल्म, एम एस धोनी द अनटोल्ड स्टोरी - जिसमें मुझे उनके बेहद करीबी मित्र चित्तू की भूमिका के लिए फाइनल किया गया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ हो क्या रहा है, आनन फानन में फ़िल्म फाइनल हो गई। मेरा ऑडिशन डायरेक्ट नीरज पाण्डेय जी को बहुत पसंद आया, कुछ ही दिनों में, मैं नीरज पांडे के साथ बैठा हुआ था - बात कर रहा था। नीरज पांडे मेरे पसंदीदा डायरेक्टर्स मे से एक है।

इनके साथ में काम करना चाहता था और वह मेरे सामने बैठे हुए थे, मेरे सपने सच होते दिख रहे थे। फ़िल्म शूट हुई, रिलीज़ हुई, हिट साबित हुई। मेरे किरदार को लोगों ने बहुत पसंद किया मुझे संवादों को लोगों ने बहुत पसंद किया। मेरे पास नए नए projects के लिए फोन आने लगे। उसके बाद फिर मुझे अगली फिल्म मिली लखनऊ सेंट्रल जिसकी कास्टिंग भी विकी सिदाना ने की, जिसको निखिल आडवाणी ने प्रोड्यूस किया और रंजीत तिवारी जी ने डायरेक्ट किया।

फरहान अख्तर के दोस्त बंटी की भूमिका के लिए फाइनल किया गया मुझे, लोगों ने बहुत पसंद किया मेरे काम को फ़रहान अख़्तर, डायना पेंटिं और कोमल नाहटा जैसे लोगों ने काम की पर्सनली तारीफ़ की।

आगे की जर्नी में उसके बाद, हम चार, वनडे, स्पेशल ऑप्स और 2019 में बाटला हाउस में मेरे काम को बहुत सराहा गया। जॉन अब्राहम जी ने मेरे क़िरदार तुफ़ैल (बाटला हाउस) की काफ़ी तारीफ़ की, सोशल मीडिया में तुफ़ैल की बहुत चर्चा हुई। जो क़िरदार मैंने बाटला हाउस में निभाया सभी समीक्षाओं में उसे सराहा गया।

सब कुछ अच्छा चल रहा है, बस आज पापा की कमी को महसूस करता हूँ, 19 मई 2020 ये दिन कभी नहीं भूलूंगा। इस दिन पापा हम सबको अलविदा कह के दूसरी दुनिया चले गए लेकिन मेरा मानना है - वो भले ही भौतिक रूप से मेरे साथ न हों लेकिन किसी अद्रश्य शक्ति के रूप में वो हमेशा मेरे साथ हैं। और मुझे पूरा विश्वास है कि मैं अपनी आगे की यात्रा को सफलतापूर्वक उनके आशीर्वाद से जारी रखूंगा। बाक़ी जो भी हूँ आज अपने परिवार और दोस्तों के साथ के बदौलत हूँ। मुंबई में हूँ.. ख़ुश हूँ..

मैं वर्तमान में जीना चाहता हूँ, मेरा मानना है क़िस्मत और कर्मा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। बस इन्ही दोनों का संतुलन बना रहे और क्या चाहिए। बाक़ी जनता जनार्दन को मेरा कोटि कोटि प्रणाम, आप सबके प्यार के बदौलत ही हम सबको ये चमकती दुनिया मे उड़ना नसीब होता है। बाक़ी कोशिश तो बहुत लोग करते हैं, साथ बना रहे, मेरी कोशिश जारी है कुछ नए रास्ते तलाशने की और आप सबको कुछ नया देने की।

आपका
आलोक पाण्डेय